हिंदी सिनेमा के ये भूले-बिसरे
प्रवर्तक
अगर हर प्रकार का इतिहास
विवादास्पद होता है, तो सिनेमा का इतिहास भी इस सच्चाई से जुदा नहीं हो सकता। एक बात और, इतिहास में कई प्रवर्तक
होते हैं, लेकिन सभी का नाम उनके सही रूप में इतिहास दर्ज नहीं कर पाता। तीसरी बात यह है
कि दो स्थितियों, दो तत्वों, दो व्यक्तियों में कई बार इतना कम या सूक्ष्म अंतर होता है कि इनमें से किसी
के सिर सेहरा मढ़ दिया जाता है, तो दूसरा हाथ मलता रह जाता है।
भारतीय सिनेमा के जनक
दादासाहब फालके माने गए ! लेकिन उन्हीं के समांतर या उन्हीं के आगे-पीछे दो और
फिल्मकार प्रवर्तनकारी कोशिशों में लगे हुए थे। इन तीनों के कार्यस्वरूप में एक
सूक्ष्म अंतर था। यह सूक्ष्म अंतर ही दादासाहल फालके को खास श्रेय दे गया, जबकि शेष दो फिल्मकार
सिनेमा इतिहास में इक्का-दुक्का उल्लेख के अलावा भुला दिए गए। ये दो फिल्मकार हैं
रामचंद्र गोपाल उर्फ दादासाहब तोरने तथा श्रीनाथ पाटणकर। यहां हम इन्हीं के
प्रवर्तनकारी योगदान का जिक्र करेंगे।
दादासाहब तोरने वह
फिल्मकार हैं, जिन्होंने ’पुंडलिक’ नामक फीचर फिल्म बनाई। इसे भारत की पहली फीचर फिल्म माना जाए या नहीं, यह विवाद का विषय है। यह
विवाद कई कारणों से है, लेकिन सच्चाई यह है कि ’पुंडलिक’ दादासाहब फालके की फीचर फिल्म ’राजा हरिश्चंद्र’
से एक साल पहले ही
प्रदर्शित हो चुकी थी। ’पुंडलिक’ 18 मई 1912 को प्रदर्शित हुई थी, जबकि ’राजा हरिश्चंद्र’ 3 मई 1913 को प्रदर्शित हुई थी।
’पुंडलिक’ और दादासाहब तोरने की
कहानी इस प्रकार है - दादासाहब ग्रीव्ह्ज कॉटन इलेक्ट्रिकल कंपनी ने बतौर लिपिक
काम करते थे। लेकिन अपनी कलात्मक रुचियों के कारण वे फिल्मकार बने। तोरने के एक
मित्र थे नाटककार रामराव बालकृष्ण कीर्तिकर। इन्हीं का लिखा हुआ लोकप्रिय नाटक था ’पुंडलिक’। जब तोरने ने ’पुंडलिक’ नाटक देखा तो उनके मन
में इसी नाटक को फिल्म में रूपांतरित करने की इच्छा कौंधी। तोरने ने अपना यह
आइडिया अपने मित्रों को कह सुनाया। लेकिन नानाभाई गोविंद चित्रे जो कि ’एडवोकेट ऑफ इंडिया’
नामक सांध्य दैनिक
से जुड़े थे तथा पुरुषोत्तम राजाराम टिपणीस जो कि थिएटर के मैनेजर थे, को ही केवल यह आइडिया
जंचा। बहरहाल इनके पास जो कमी थी वह पैसों की तथा सिनेमा माध्यम की तकनीक की
जानकारियों की।
इन्हें पता चला कि बोर्न
एंड शेफर्ड कंपनी के बंबई स्थित दफ्तर में एक फिल्म कैमरा यूं ही पड़ा हुआ है। कई
पत्र व्यवहार और बैठकों के उपरांत यह विलियमसन कैमरा एक हजार रुपये में तोरने
गु्रप ने खरीदा। साथ ही चार सौ फुट लंबाई का फिल्म रोल भी हासिल किया। लेकिन तोरने
तथा उनके मित्रों में से किसी को कैमरा चलाना नहीं आता था। बहरहाल उस कंपनी के एक
कर्मचारी श्री jonsonजॉनसन ने उन्हें अपनी सेवाएं प्रदान करने का प्रस्ताव रखा।
तोरने और उनके साथियों
ने ’पुंडलिक’
नाटक के शौकिया
कलाकारों को ही अपनी फिल्म ’पुंडलिक’ में भूमिकाएं दीं। नाटककार कीर्तिकर ने अपने मित्र नाडकर्णी
की मदद से नाटक ’पुंडलिक’ को संक्षिप्त किया। तोरने ने इसके निर्देशन की बागडोर संभाली।
अधिकतर शूटिंग बंबई के लैमिंगटन रोड पर स्थित एक
मैदान में की गई। कुछ शूटिंग त्रिभुवन दास रोड
तथा विट्ठलभाई पटेल रोड पर भी की गई। फिल्म को तकनीकी प्रक्रियाओं से
गुजरने हेतु विदेश भेजा गया। अंततः ’पुंडलिक’ बंबई के गिरगांव स्थित कोरोनेशन सिनेमागृह में 18 मई 1912 को प्रदर्शित हुई।
तोरने भारत की पहली
बोलती फिल्म ’आलमआरा’ के लिए भी किस तरह प्रेरणा साबित हुआ इसकी भी रोचक कहानी है। ’आलमआरा’ को पहली बोलती फिल्म के
तौर पर श्रेय पाना महज एक संयोग है। उस समय के प्रभावशाली तथा स्रोतों से परिपूर्ण
फिल्मकार मदान भारत की पहली बोलती फिल्म बनाने की कोशिश में थे, लेकिन आर्देशिर ईरानी की
’आलमआरा’
बनाने की पहल को
देखते हुए मदान ठंडे पड़ गए। ईरानी में भी ’आलमआरा’ बनाने की कोई विशेष चाह नहीं थी,
लेकिन उन्हें उनकी
कंपनी के जनरल मैनेजर यानी दादासाहब तोरने ने पहली बोलती फिल्म बनाने का जोखिम
उठाने हेतु उकसाया। हुआ यह कि तोरने ने कुछ समय पहले ’ऑडियो कैमेक्स रिकॉर्डिंग मशीन’
के विपणन की एजंसी
ले रखी थी। ईरानी ने तोरने की सलाह मानी और ’आलमआरा’ बनाने में जुट गए।
इस घटना के छह महीने बाद
प्रभात फिल्म कंपनी ने फिर तोरने और उनकी ऑडियो कैमेक्स रिकॉर्डिंग मशीनरी की
सहायता चाही। इस समय मामला पहली बोलती मराठी फिल्म बनाने का था। हालांकि खुद तोरने
’श्याम सुंदर’
नाम पहली मराठी
फिल्म बनाने के इरादे पक्के कर चुके थे। भालजी पेंढारकर को इस फिल्म का निर्देशन
करना था। तोरने ने कुछ और कंपनियों को भी उनकी अपनी पहली बोलती फिल्म बनाने में
मदद की। इन कंपनियों में प्रभात के अलावा रंजीत फिल्म कंपनी भी थी। इस तरह हम कह
सकते हैं कि बोलती फिल्मों के निर्माण में तोरने की सहायता का अपना महत्व है।
बोलती फिल्मों के युग में खुद तोरने ने भी कई रुचिकर, मनोरंजक फिल्में बनाईं। कई बार
तो खुद के स्वार्थों की कीमत चुका तोरने ने दीगर फिल्मकारों को स्थापित किया।
एक और भुला दिए गए फीचर
फिल्म प्रवर्तक थे, जिन्होंने दादासाहब फालके से पहली भारतीय फीचर फिल्म बनाने की कोशिश की। यह थे
श्रीनाथ पाटणकर। इनके साथ दो प्रकार की बदकिस्मती अपना असर छोड़ गई। पहली तो यह कि
दादासाहब तोरने को तो फिर भी कुछ शोहरत प्राप्त हुई, पाटणकर इससे भी वंचित रहे। दूसरी
बदकिस्मती पाटणकर के फिल्म निर्माण से ही जुड़ी है। श्रीनाथ पाटणकर के दो और साथी
थे अनंतराम परशुराम करंदीकर तथा वी.पी.दिवेकर, भारत के प्रथम (लघु) फिल्मकार
सावे दादा ने 1907 में जब अपना ल्युमिए कैमरा मिट्टी मोल यानी केवल सात सौ रुपये में बेचा तो
उसे पाटणकर तिकड़ी ने खरीदा। सावे दादा ने अपना यह कैमरा मिट्टी के भाव इसलिए बेचा,
क्योंकि अपने छोटे
भाई रामकृष्ण की मौत से आहत होने के कारण वे फिल्म निर्माण से मुख मोड़ चुके थे।
श्रीनाथ पाटणकर गिरगांव
के कोरोनेशन सिनेमागृह के प्रबंधक थे, जबकि करंदीकर तथा दिवेकर पर नई फिल्मों के प्रदर्शन
के समय उसी सिनेमागृह को सुसज्जित करने की जिम्मेदारी होती थी। इसी कारण ये तिकड़ी
देशी-विदेशी फिल्मों के अधिक करीब पहुंच पाई। देशी फिल्मों में सावे दादा, हीरालाल सेन की फिल्मों
का भी समावेश था। कैमरा हासिल करने के बाद पहले तो इस तिकड़ी ने छोटी-छोटी फिल्में
बनाईं। इन फिल्मों में 1911 में बनाई ’इंपेरियल दरबार’ फिल्म भी शामिल है।
जब इस तिकड़ी ने सिनेमा
क्षेत्र में अपने पांच साल के अनुभव के कारण आत्मविश्वास पा लिया, तो वे अपने मूल उद्देश्य
यानी फीचर फिल्म बनाने की ओर बढ़े। वास्तव में उनका मूल इरादा फीचर फिल्म बनाने का
ही था, न
कि लघु फिल्में बनाने का। बहरहाल तिकड़ी ने दो और वित्तीय भागीदारों को अपने बीच
शामिल कर लिया। रानडे और भातखंडे इन भागीदारों के नाम थे। नतीजतन पाटणकर यूनियन का
गठन हुआ।
पहली फीचर फिल्म के लिए
हिंदू पौराणिक कथा ’सावित्री को चुना। सावित्री की भूमिका के लिए अहमदाबाद की नर्मदा मांडे नामक
लड़की तय की गई। खुद दिवेकर वैश्य ऋषि की भूमिका अदा करनेवाले थे, तो जयमुनि की भूमिका
लोकप्रिय रंगमंच कलाकार के.जी.गोखले को करनी थी।
मई 1912 में कोई एक हजार फुट
लंबाई की फिल्म शूट की गई। फिल्म निर्माण के समय ही श्रीनाथ पाटणकर जो कि इस फिल्म
के निर्देशक थे, को आशंका होने लगी थी कि फिल्म में कुछ तकनीकी दोष रह गए हैं। बाद में फिल्म
के तकनीकी प्रक्रियाओं से गुजरने पर भी कुछ समस्याएं उभरीं। नतीजा यह निकला कि
पूरी फिल्म कोरी की कोरी रह गई। उस पर का फिल्मीकरण नदारद था। यही पाटणकर के साथ
दूसरी बदकिस्मती घटित हुई।
दादासाहब तोरने की तरह
पाटणकर भी प्रथम भारतीय फीचर फिल्म के प्रवर्तक के रूप में नाकामयाब रहे। यहां यह
बता दें कि उनकी शुरुआत से एक हफ्ते पहले ही दादासाहब तोरने की फिल्म ’पुंडलिक’ प्रदर्शित हो चुकी थी।
लेकिन कम से कम यह तो होता कि दादासाहब फालके से पहले पाटणकर का नाम लिया जाता।
संभवतया वे ही प्रथम भारतीय फीचर फिल्म के निर्देशक के रूप में उभरते। इस घटना से
एक और हानि हुई। नर्मदा मांडे भारतीय फिल्मों की प्रथम महिला कलाकार का खिताब पाने
का अपना अवसर भी खो बैठीं। पाटणकर शायद जान चुके थे कि दो दादासाहब उन्हें मात कर
चुके हैं, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने कई ऐतिहासिक-पौराणिक फिल्में
बनाईं। लेखक, निर्माता, निर्देशक, कैमरामैन तथा अभिनेता पाटणकर ने कुछ और मौलिक काम किए। उन्होंने पहली भारतीय
ऐतिहासिक फिल्म बनाई। हालांकि यह दौर पौराणिक फिल्मों का था। पौराणिक विषय
फिल्मकारों के लिए शाश्वती दे जाते, लेकिन पाटणकर ने नया विषय क्षेत्र चुना - इतिहास का।
इसलिए भी कि दादासाहब फालके पौराणिक विषय अपना चुके थे। पाटणकर ने ऐतिहासिक विषय
क्षेत्र चुना। पाटणकर ने जैमिनी या पॅशन वर्सस लर्निंग 1915 बनाई।
पाटणकर ने अपनी ऐतिहासिक
फीचर फिल्म के लिए मराठा इतिहास से विषय चुना। विषय था नारायणराव पेशवा की हत्या।
लेकिन फिल्म का नाम रखा गया ’नारायणराव पेशवा की मौत’, जो पूना के आर्य सिनेमागृह में 1915 में प्रदर्शित हुई। यह
फिल्म लोकेशन पर ही फिल्माई गई। लेकिन प्रकाश रिफ्लेक्टरों का इस्तेमाल न करने के
कारण फिल्म कुछ धुंधली रह गई। पाटणकर को पहली भारतीय धारावाहिक फिल्म बनाने का भी
श्रेय है। फिल्म का विषय था भगवान राम का वनवास। कोई छह घंटे चलनेवाली 20,000 फुट लंबाई की, चार हस्सों में बनी
फिल्म ’राम
वनवास’ एक
महीने से अधिक समय तक प्रदर्शित की गई। देखने हेतु चार टिकटोंवाला एक कूपन दिया
जाता था।
पाटणकर के सिर एक और
सेहरा बंध सकता है। हालांकि यह विवादास्पद बात है। उन्हें पहली भारतीय सामाजिक
पृष्ठभूमि वाली फिल्म बनाने का श्रेय भी दिया जा सकता है। लेकिन इस मामले में
दावेदार धीरेन गांगुली भी हैं। पाटणकर ने 1920 में ’दी एनचॅन्टेड पिल्स’ फिल्म बनाई, जिसके बारे में कहा जाता
है कि यह सामाजिक पृष्ठभूमि वाली फिल्म
थी। अगर इन दावों को मान लिया जाए तो यह स्वीकार करना पडे़गा कि उक्त फिल्म
सामाजिक पृष्ठभूमिवाली पहली भारतीय फिल्म होगी। इस स्थिति में धीरेन गांगुली का
दावा खारिज हो सकता है कि 1921 में बनी उनकी फिल्म ’बिलत फेरत’ सामाजिक पृष्ठभूमिवाली
पहली भारतीय फिल्म थी।
बहरहाल प्रतिभाशाली
पाटणकर को एक जगह और मात खानी पड़ी। वह था उनके वित्तीय पोषकों का उनका साथ छोड़
जाना। इसीलिए उपजाऊ क्षमता के पाटणकर को बतौर फिल्मकार अपना कैरिअर 1926 में ही खत्म कर देना
पड़ा। इसके बाद वे बोलती फिल्मों के शुरुआती दौर में वे इंपीरियल फिल्म के साथ
जुड़े, फिर
मोहन भवनानी के अजंता सिनेटोन में अभिनय पढ़ाते रहे। बहुत बाद में वे कला निर्देशक
भी बने, लेकिन
बहुत जल्दी ही गुमनामी के शिकार भी हो गए।
राजेंद्र पांडे द्वारा लिखित लेख (एक्सप्रेस स्क्रीन
17.11.95 में प्रकाशित)
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