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Friday, December 11, 2015

राजेंद्र पांडे द्वारा लिखित लेख - भारतीय सिनेमा के जनक फालके थे या तोरने या पाटणकर ?

भारतीय सिनेमा के जनक
फालके थे या तोरने या पाटणकर ?

                इतिहास वही, जो किंतु-परंतुओं से भरा पड़ा हो। ये सभी किंतु-परंतु न होते या अपनी जगह सही होते तो इतिहास के कमोबेश सभी अध्याय अलग सच्चाइयों के साथ लिखे जा चुके होते। भारतीय फिल्म का इतिहास भी अपवाद न होता। लेकिन (लिखा) इतिहास, इतिहास है। इसलिए उसे स्वीकार करना पड़ता है, लेकिन किंतु-परंतुओं के साथ।
                भारतीय फिल्मों के इतिहास में किंतु-परंतु यह है कि दादासाहब तोरने तथा पाटणकर विभिन्न कारणों या बदकिस्मती के शिकार न होते तो दादासाहब फालके की जगह वे (उन में से एक) भारतीय सिनेमा के जनक कहलाते। लेकिन इन दिनों की तुलना में काफी देर से आए फालके भारतीय सिनेमा के जनक कहलाए। किस्सा यों है -
                3 मई 1913 को फालके द्वारा पहली भारतीय फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्रका प्रदर्शन हुआ। लेकिन हरिश्चंद्र भाटवडेकर उर्फ सावे दादा ने नवंबर 1899 में ही अपनी दो लघु (फीचर नहीं) फिल्मों का प्रदर्शन किया। सावे दादा ने और भी फिल्में बनायीं। बाद में अपने भाई की मौत से दुखी हो अपना कैमरा बेच दिया। यह कैमरा अनंतराम करंदीकर, वी.पी.दिवेकर तथा श्रीनाथ पाटणकर की तिकड़ी ने खरीदा।
                1912 में इस तिकड़ी ने रानडे तथा भातखंडे नामक दो और वित्त सहायकों को अपने साथ ले पाटणकर यूनियनकी स्थापना की। हालांकि इससे पहले यानी कैमरा खरीदने के साल 1907 से अब तक तिकड़ी ने कुछ छोटी फिल्में बनायीं। फिल्म तकनीक का अध्ययन किया वगैरह वगैरह। फिर अपने मुख्य मकसद फीचर फिल्म बनाने की तरफ मुडे़।
                फीचर फिल्म हेतु उन्होंने पौराणिक विषय सावित्री की कथा चुनी। अहमदाबाद की युवा नर्मदा मांडे को सावित्री की भूमिका के लिए तय किया। व्यास मुनि की भूमिका खुद दिवेकर ने की। मशहूर रंगमंच कलाकार के.जी.गोखले जय मुनि बने। उक्त फिल्म जिसकी लंबाई कोई एक हजार फुट थी, मई 1912 में शूट की गई। फिल्म निर्माण के दौरान ही पाटणकर जो इस फिल्म के निर्देशक थे, को कुछ तकनीकी खामियों का अहसास होने लगा था। बहरहाल, निर्माण तकनीक प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद फिल्म जब हाथ आई तो पूरी तरह कोरी थी।
                मई 1913 में फालके की राजा हरिश्चंद्ररिलीज हुई। अगर पाटणकर के साथ यह हादसा न होता तो राजा हरिश्चंद्र के निर्माण से एक साल पहले ही वह भारतीय सिनेमा के जनक कहलाते। नर्मदा मांडे को भी पहली भारतीय हीरोइन स्त्री कलाकार होने का सम्मान मिलता। यह सम्मान कमलाबाई गोखले को दादासाहब फालके की दूसरी फिल्म मोहिनी भस्मासुर में भूमिका निभाने के कारण मिला। कमलाबाई गोखले आज के प्रसिद्ध रंगकर्मी तथा हिंदी मराठी फिल्मों के चरित्र अभिनेता विक्रम गोखले की दादी थीं।
                पाटणकर की बदकिस्मती फिर भी समझ में आती है, लेकिन रामचंद्र उर्फ दादासाहब तोरने को पहली भारतीय फीचर फिल्म बनाने का सम्मान क्यों नहीं मिला, यह सोचने लायक सवाल है। तोरने ने तो पाटणकर की कोशिशों से एक हफ्ते पहले ही अपनी मराठी फिल्म पुंडलिकको रिलीज कर दिया था। पुंडलिक वास्तव में रामराव कीर्तिकर द्वारा लिखित श्रीपाद संगीत मंडली के प्रसिद्ध नाटक पुंडलिक का फिल्म संस्करण था।
                तोरने के सामने भी शुरू में यह समस्या थी कि नाटक पर फिल्म बनाने हेतु पैसा तथा तकनीकी मदद कहां से लायें ! बहरहाल, दोनों समस्याएं हल हुईं। तोरने ने बोर्न एंड शेफर्ड कंपनी के बंबई कार्यालय से एक हजार रुपये में विलियमसन कैमरा तथा चार सौ फुट लंबाई की फिल्म खरीदी। हालांकि कैमरा चलाना तोरने ग्रुप के किसी भी व्यक्ति को नहीं आता था। अतः कंपनी के ही एक कर्मचारी श्री जाॅनसन ने अपनी सेवाएं देनी कबूल की।
                पुंडलिक नाटक में काम कर रहे शौकिया कलाकारों को ही पुंडलिक फिल्म में काम करने हेतु कहा गया। मनोरंजक बात यह है कि जिस डी.डी.दाबके को एक साल बाद फालके के राजा हरिश्चंद्र में मुख्य भूमिका मिलनी थी, उसी दाबके को पुंडलिक में छोटी-सी भूमिका दे दी गयी। नाडकर्णी की मदद से खुद नाटककार कीर्तिकर ने अपने नाटक पुंडलिक को फिल्माने हेतु छोटा किया। तोरने ने इस फिल्म का निर्देशन किया।
                आज बंबई के लैमिंगटन रोड पर जहां नाज, स्वस्तिक तथा इम्पीरियल सिनेमागृह हैं, वहां उस समय के खुले मैदान में फिल्मांकन ही शुरू हुआ। तैयार हुई फिल्म प्रक्रिया हेतु विदेश भेजी गयी। इस तरह 18 मई 1912 को यानी राजा हरिश्चंद्रके ठीक एक साल पहले, बंबई के गिरगांव स्थित कोरोनेशन सिनेमागृह में पुंडलिकरिलीज हुई। कोरोनेशन में ही राजा हरिश्चंद्ररिलीज हुई थी। इसी नामीगिरामी कोरोनेशन के मैनेजर श्रीनाथ पाटणकर ही थे।
                फिल्म लेखक-पत्रकार संजित नार्वेकर अपनी बहुचर्चित, बेहद उपयुक्त अंग्रेजी किताब मराठी सिनेमा का पुनरावलोकन में इस लेख में दिये इतिहास को रेखांकित करते हुए दो-तीन संभावित कारण गिनाये हैं, जिनके कारण तोरने पहली भारतीय फीचर फिल्म के जनक के रूप में स्थापित नहीं हो पाये। पहला कारण तो यह है कि पुंडलिक मौलिक पटकथा पर आधारित नहीं थी, बल्कि नाटक का फिल्म रूपांतरण था। चंूकि पुंडलिक का कैमरामैन एक विदेशी था, इसलिए यह माना गया है कि यह फिल्म पूरी तरह भारतीयों द्वारा बनायी गयी (पहली) फिल्म नहीं है। तीसरे दादासाहब तोरने की चुप्पी दादासाहब फालके को भारतीय सिनेमा (फीचर फिल्म) का जनक बना गयी।

राजेंद्र पांडे द्वारा लिखित लेख (नवभारत टाइम्स, 4.10.95 में प्रकाशित )


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