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Friday, December 11, 2015

राजेंद्र पांडे द्वारा लिखित लेख - विश्व सिनेमा का शुरुआती दौर - सफर ऐसा रहा

विश्व सिनेमा का शुरुआती दौर
सफर ऐसा रहा

                सिनेमा का आविष्कार जैसे ही हुआ मानव जाति को मनोरंजन का एक नया साधन उपलब्ध हो गया। पूरी दुनिया में लोग इस नए क्षेत्र में प्रयोग करने के लिए उतावले होने लगे। यह उतावलापन आज तक जारी है। फर्क इतना ही है कि शुरुआती दौर का मानवीय उतावलेपन जिज्ञासा से प्रेरित था, आज के उतावलेपन ने पूरी दुनिया में एक हवस का रूप ले लिया है।
                फ्रांस के ल्युमिए बंधुओं ने ही सिनेमा माध्यम का आविष्कार किया, लेकिन फ्रेंच सिनेमा की नींव जॉर्ज मिली ने डाली। मिली ल्युमिए बंधुओं के साथ जुड़ कर सिनेमा माध्यम में कुछ करना चाहता था। लेकिन ल्युमिए बंधुओं के नकार देने पर मिली ने लंदन से पैरिस सिनेमा के जरूरी उपकरण ला मोंत्री सूसबॉई में स्टुडियो खड़ा किया। यूरोप का यह पहला स्टुडियो था। इस तरह फ्रेंच सिनेमा का जन्म हुआ।
                ल्युमिए बंधुओं के प्रशिक्षित आदमी भारत आए। उन्होंने सर्वप्रथम 7 जुलाई 1896 को बंबई में अपनी फिल्मों का प्रदर्शन किया। उसके बाद कलकत्ता में। वहां रोचक बात यह हुई कि एक व्यवसायी ने इन प्रशिक्षित तकनीशियनों का अपहरण किया और उन्हें ऑस्‍ट्रेलिया ले गया। वहां उनसे जबरन फिल्म प्रदर्शन करवाए। इस तरह दिसम्बर 1896 में ऑस्‍ट्रेलिया में सिनेमा का जन्म हुआ।
                विश्वस्तर पर जब प्रयोगात्मक फिल्मों का प्रदर्शन होता तो समस्या यह होती कि इनका प्रदर्शन कहां किया जाए, हमारे यहां, यानी बंबई में, तो प्रथम प्रदर्शन होटल के एक कमरे में हुआ। प्रदर्शन के लिए कहीं टेंट खड़े किए गए, कहीं नाट्यगृहों को उपयोग किया गया। बाद में फिल्म थिएटर बनाए गए, जो लोग फिल्म व्यवसायों में आना चाहते थे उन्होंने फिल्म कंपनियां स्थापित कीं। उन्होंने ही फिल्म स्टुडियो खड़े किए।
                आज हम खबरों का चित्ररूप (चित्रीकरण) देखते हैं। लेकिन इसकी शुरुआत सिनेमा के शुरुआती दौर में ही हो गई। सिनेमा का आविष्कार लोगों के लिए एक वैज्ञानिक अजूबा रहा। धीरे-धीरे इस अजूबे से लोगों का दिल भरने लगा। उन पर पकड़ बनाए रखने के लिए इर्दगिर्द की घटनाओं, समाचारों की लंबाई एक या दो रील हुआ करती थी। आगे चलकर इसी ने वृत्तचित्र का रूप लिया। एक बात और इस प्रकार की शूट घटनाओं से लोगों का ज्ञान भी बढ़ा।
                वर्तमान में दुनिया में फिल्में सेंसर होती हैं लेकिन फिल्मों पर कानूनी प्रतिबंध लगाने की पहल अमेरिका में 1907 में ही हो चुकी थी। शिकागो में एक अध्यादेश जारी किया गया, जिसके तहत फिल्मों को लाइसेंस प्राप्त करना जरूरी था। इस प्रकार का सिलसिला अमेरिका के दीगर शहरों में भी शुरू हुआ। अतंतः सारे अमेरिका में फिल्मों के विक्रय प्रथा प्रदर्शन पर नए कानून लागू हुए। अमेरिका की तर्ज पर इंग्लैंड में भी जनवरी 1910 में सिनेमाटोग्राफ अधिनियम जारी किया। इससे कुछ माह पहले फ्रांस सरकार ने भी ऐसा अधिनियम जारी किया ताकि फिल्म प्रदर्शनों का निरीक्षण किया जा सके। भारत में इस प्रकार का कानून बनने में और आठ साल लग गए। 1918 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सिनेमाटोग्राफ अधिनियम पास किया। हालांकि भारत में इस प्रकार के अधिनियम को लागू करने की ब्रिटिश सरकार की मंशा अलग थी। इस अधिनियम के जरिए ब्रिटिश सरकार सिनेमा माध्यम की हलचल पर तथा लोगों की भावनाओं पर काबू रखना चाहती थी। बहरहाल दुनिया में सिनेमा सरकार का विषय भी बन गया।
                घटना दिखाने वाली एक दो रीलवाली फिल्मों के बाद कथा वर्णन करनेवाली फिल्में आईं। ये मूक फिल्में हुआ करती थीं। इनके साथ लिखित भाषा जुड़ी हुआ करती थीं। अधिकांश मामलों में अंग्रेजी। जब गैर भाषा बोलनेवाले देश में ये लघु फिल्में दिखाई जातीं तो इनके भाषाकार्डस्थानीय भाषा में बना दिए जाते। यह बात 1889 के आसपास की है। इसी समय अपनी मौलिकता के कारण विश्व सिनेमा में अमेरिकी सिनेमा प्रधानता प्राप्त करने लगा।
                पहली वर्णनात्मक फिल्म थीं अवर न्यू जनरल सर्वेंट। इसमें  चार दृश्य थे। पहली प्रचारात्मक फिल्म थी टियरिंग डाउन द स्पैनिश फ्लैग। इसे स्पैनिश अमेरिकी युद्ध के दौरान शूट किया गया था। ट्रिक फोटोग्राफी इस्तेमाल करने वाली पहली फिल्म थी मिली द्वारा बनाई गई छोटी फ्रेंच फिल्म विजीट सू मे टू मेन’ (विजीट ऑफ दी वारशिप मेन’)। मिली को विश्व की पहली साइंस फिक्शन फिल्म बनाने का श्रेय भी प्राप्त है। 1902 में बनी इस फिल्म का नाम था ली वोयेज दान ला मून’ (द जर्नी टू दी मून)। इस फिल्म से यह तथ्य स्थापित हुआ कि सिनेमा के जरिये सिर्फ सादगीपूर्ण तरीके से किसी कथा का वर्णन नहीं किया जा सकता बल्कि फिल्मकार सिनेमा में अपनी सूझबूझ और कल्पनाशक्ति को भी भुना सकता है।
                फिल्म संकलन यानी एडिटिंग कला की खोज इत्तेफाकन कैसी हुई उसकी कहानी इस प्रकार है - साहसी छायाचित्रकारी जैमस विलियमसन की 1901 में बनी फिल्म फायरप्रसिद्ध वैज्ञानिक एडीसन के सहायक एडविन पोर्टर ने देखी। फायरको आधार बनाकर पोर्टर ने अमेरिका में फायरका पुनर्निमाण कर द लाइफ ऑफ एन अमेरिकन फायरमैनबनाई। मूल फिल्म के साथ पोर्टर ने कुछ और दृश्य जोड़ दिए और अचानक फिल्म संकलन की कला खोज निकाली।
                पोर्टर ने एक और ब्रिटिश फिल्म ए डेयरिंग डे लाइट राॅबरीसे प्रेरणा पा 1903 में द ग्रेट टेªन राॅबरीबनाई। इस फिल्म ने विश्व सिनेमा इतिहास में अपना सिक्का जमाया। अमेरिका में इस फिल्म ने हंगामा मचाया। इस फिल्म में एक दृश्य है। एक शॉट में क्लोजअप में फिल्म का गैंगस्टार सीधे ऐसी गन चलाता है जिससे महसूस हो वह सीधे दर्शकों पर ही गन चला रहा हो। दर्शक भयभीत हो अपना सीना पेट छुपा लेते थे।
                अमेरिका तथा ब्रिटेन में द ग्रेट ट्रेन रॉबरीकी भारी सफलता ने एक और भला-बुरा काम किया। इसने सिनेमा जगत को एक नया विषय दिया - अपराध। इसके बाद दसियों फिल्में इसी तर्ज पर बनीं। यह तब तक होता रहा, जब 1906 में फ्रेंच फिल्म ला वी टू क्राइस्ट’ (दी लाइफ ऑफ क्राइस्ट) बनी। पाठकों को याद होगा, यही वह फिल्म है जिसे देखकर भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहेब फालके ने भारत में पौराणिक फिल्म बनाने की प्रेरणा ली।
                भारत की ही बात कही जाए तो यह कि मदन बंधुओं ने पूरे भारत में सिनेमागृह का जाल बिछा दिया था। वे अपना व्यवसाय श्रीलंका, म्यांमार तथा हांगकांग में भी फैला चुके थे। उनके द्वारा स्थापित मदन थिएटर्स लिमिटेड के जरिए फिल्मों का निर्माण, वितरण तथा प्रदर्शन होता रहा।
                विक्टर की फ्रेंच फिल्म द लाइफ ऑफ क्राइस्टदेखकर धुंडीराज गोविंद फालके उर्फ दादासाहेब फालके विचलित हुए। उन्होंने तत्काल एबीसी ऑफ सिनेमाटोग्राफीखरीदी। उसके बाद 1912 में इंग्लैंड से विलियमसन कैमरा तथा दीगर फिल्म उपकरण खरीदे। 1913 में उन्होंने राजा हरिश्चंद्रबनाई। इस तरह भारत में पहली कथा फिल्म बनी।
                जहां तक इटली के सिनेमाजगत का सवाल है उसकी शुरुआत 1909 में हुई। इटली की फिल्म ला कदूत दीत्रोईने पूरे यूरोप में डंका बजाकर इटालियन सिनेमा को पहचान दिलाई। 1910 के आसपास तक अपराध, रोमांस, साहस, इतिहास जैसे विषयों पर ही फिल्में बनती थीं, लेकिन डेनमार्क में सेक्स विषय का पदार्पण हो गया। पुरुष की कामवासना और वेश्या जैसे विषय पर डेनमार्क में फिल्में बनने लगी। स्वभावतः ऐसे फिल्मकारों ने पैसा बनाया। इस सेक्स लहर से उबरने के लिए अमेरिकी फिल्मकारों ने पहल की। 1913 में जॉर्ज लोन ने ट्रेफिक इन सोल्सबनाई। यह फिल्म हिट रही । इस फिल्म से प्राप्त लाभ से पूरे जगत में प्रसिद्ध यूनिवर्सल पिक्चर्स नामक स्टुडियो की नींव पड़ी।
                एक और जगप्रसिद्ध स्थान हॉलीवुड की नींव ऐसे ही पड़ी। वह भी जगप्रसिद्ध फिल्मकार, उस समय जवान सिसील द मिली द्वारा। सिसील ने अमेरिकी-मेक्सिको सीमा पर एक शेड खड़ा किया। इसी शेड में उसने अपनी पहली फिल्म स्‍कवॉ मैनबनाई। सिसील ने आजीवन वहीं रहने का इरादा भी बना लिया। यही इलाका बाद में हॉलीवुड कहलाया। सिसील के बाद थॉमस तथा डी.डब्ल्यू.ग्रिफीथ जैसे प्रमुख फिल्मकार भी वहीं आ गए।
                यह वही ग्रिफीथ हैं जिन्होंने सिनेमा में नई संस्कृति को जन्म दिया। मूलतः अभिनेता ग्रिफीथ की जानी मानी फिल्म है बर्थ ऑफ ए नेशन1915 में बनी यह फिल्म कोई तीन घंटे अवधि की थी। इसमें अमेरिका का इतिहास था। आधुनिक सिनेमा जगत मेलाड्रामा दिखाने के लिए बदनाम है लेकिन बर्थ ऑफ ए नेशनमें आधुनिक सिनेमा के सभी तत्व थे। मसलन रोमांस, खोना-पाना, दौड़ के दृश्य, देशभक्ति, प्रकृति के नजारे, अपराध, अपराधी तथा सत्पुरुष। सिनेमा माध्यम के जरिए दुनिया ने इससे पहले ऐसा कुछ नहीं देखा था। 1915 में ही ग्रिफीथ ने इनटॉलरेंसनामक फिल्म बनाई। सिविलाइजेशन इन यूरोपनाम से रिलीज हुई इस फिल्म ने बॉक्‍स ऑफिस पर इतिहास बनाया। ग्रिफीथ का नाम सर्वत्र लिया जाने लगा। यह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था। यूरोप के कई देश जिन पर राजघरानों का शासन था, धाराशाई हो गए। लगा जैसे फिल्म इनटॉलरेंसदर्शकों को प्रजातंत्र तथा न्यायवादिता अपनाने का संदेश दे रही है।
                1919 में रूस में जारशाही का पतन हो चुका था। लेनिन में किसी तरह इनटॉलरेंसके एकमात्र प्रिंट को प्राप्त करने में कामयाबी हासिल कर ली। एक थिएटर ऑपरेटर के जरिए यह प्रिंट चोरी-छुपे रूस में लाया गया था। फिल्म को देखकर लेनिन को सिनेमा माध्यम के महत्व का पता चला। उसने इनटॉलरेंसको मिसाल बना सोवियत फिल्म उद्योग की नींव रखी। आगे चलकर स्ट्राइकतथा दी बैटलशिप पॉटेमकिननामक रूसी फिल्मों ने विश्व के गंभीर फिल्मकारों को रूसी सिनेमा का लोहा मानने के लिए मजबूर किया। माना गया कि रूसी फिल्मकार सरजेई आयजनस्टीन ने एक नए सिनेमा की खोज की है।
                यहां भारत में 1920 में इनटॉलरेंसदिखाई गई। जिसने भारतीय समाज में हलचल पैदा कर दी। अंग्रेज सरकार कानून के अभाव में फिल्म पर पाबंदी नहीं लगा सकी। बहरहाल इसी समय प्रसिद्ध कॉमेडियन चार्ली चैपलिन का जादू चल रहा था। चार्ली चैपलिन का उदय 1916 में हुआ था। उसकी दो रील लंबाई की कॉमेडी सर्वत्र हंगामा मचा रही थी। उसी तरह भारत में महाराष्ट्र फिल्म कंपनी, कोहिनूर कंपनी, अरोड़ा फिल्म्स् अच्छा व्यवसाय कर रही थीं।
                विश्व सिनेमा में एक और परिवर्तन आना था, वह था फिल्मों में आवाज। सन् 1926 में सिनेमा में ध्वनि का पदार्पण हुआ। वार्नर बंधुओं ने पहली बार द जॉज सिंगरनामक संगीतप्रधान कृति का निर्माण किया। 1927 में यह अमेरिका में रिलीज हुई। पहली भारतीय बोलती फिल्म थी आलमआराजो सन् 1931 में बनी।
                फिल्मों में ध्वनि आने से जहां फिल्मकारों को संदेश देने के लिए एक और सूक्ष्म माध्यम मिला, वहीं फिल्में विश्व स्तर पर भाषा के स्तर पर बंट गईं। उन कलाकारों के भी बुरे दिन आए जिनकी आवाज साऊंडट्रैक के लिए योग्य साबित नहीं हुई। सिनेमा में ध्वनि के पदार्पण से एक और कल्पना का जन्म हुआ। यही कि सिनेमा जगत की अच्छी कृतियों को पुरस्कृत किया जाए। इस तरह ऑस्‍कर पुरस्कारों का जन्म हुआ।
                इसी समय सिनेमा तकनीक में एक और क्रांति हुई। 1927 में वॉल्‍ट डिस्ने ने यह तय किया कि वे मानव कलाकार के बजाए कार्टून का इस्तेमाल कर फिल्म बनाएंगे। 1928 में फिल्मों के बादशाह के रूप में मिकी माउस का जन्म हुआ। चित्रकथा (एनिमेशन) फिल्मों के जरिए वॉल्‍ट डिस्ने ने विश्व सिनेमा इतिहास में जो अपना स्थान बनाया वह अद्वितीय है। वॉल्‍ट डिस्ने की नकल करने की कईयों ने कोशिश की लेकिन नाकामयाब रहे। जहां तक अफ्रीका का सवाल है, इस महाद्वीप में मिस्र पहला देश बना जहां स्टुडियो स्थापित किया गया। अलेक्झांड्रिया में पहला स्टुडियो बना। दक्षिण अफ्रीका के केपटाऊन में भी एक छोटा फिल्मोद्योग अस्तित्व में आया। शेष अफ्रीका, इंग्लैंड तथा फ्रांस के स्टुडियो पर निर्भर रहे। पूर्व अफ्रीका में भारतीय फिल्मों ने जगह बनानी शुरू की।
                आज हम स्टार सिस्टम की बात करते हैं लेकिन इस सदी के पहले दशक में ही फ्रेंच सिनेमा ने स्टार प्रणाली को जन्म दिया। 1908 में बनी फ्रेंच फिल्म ला दाम ऑक्‍स कॅमेलियामें उस समय की प्रसिद्ध रंगमंच अभिनेत्री सराह बरहार्द ने भूमिका निभाई। दर्शकों की  भीड़ सराह को देखने बार बार उमड़ती थी। अतः फिल्म निर्माताओं में सराह को अपनी फिल्म में लेने की होड़ लग गई। सराह को प्रथम अंतर्राष्ट्रीय फिल्म अभिनेत्री बनने का भी सम्मान प्राप्त है। इसी सदी का तीसरा दशक सही माने में स्टारों का काल रहा; हालांकि ये स्टार इस समय भी बड़े-बड़े स्टुडियो की चाकरी में ही थे।
                यही समय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साहित्यिक कृतियों को सिनेमा माध्यम में ढालने का भी रहा। इसकी मिसाल हैं लॉस्‍ट  होराइजन’, ’द गुड अर्थ’, ’द प्रिजनर ऑफ जेंडा’, ’द प्रिंस एंड द पॉपर’, ’रोमियो एंड जुलिएट’, ’स्टेज कोच’, ’ऑल क्वाएट ऑन दी वेस्टर्न फ्रंट’, ’स्नो व्हाइट एंड दी सेवन ड्वार्फ्स’, ’द एंडवचर्स ऑफ टॉम सॉयर’, ’पिगमॅलियन’, ’द हाऊंड ऑफ द बास्करविल्स’, ’गॉन विथ द विंडवगैरह।
                इटली का तानाशाह मुसोलिनी किसी तरह अपनी इटली का नाम रोशन करना चाहता था। अतः मुसोलिनी ने दुनिया का सर्वप्रथम अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह अपने देश के वेनिस शहर में आयोजित किया। सन् 1937 में हुए इस फिल्म समारोह में भारतीय फिल्म संत तुकारामउन चार फिल्मों में से थी, जिन्हें सर्वोच्च पुरस्कार मिले। इस फिल्म समारोह से प्रेरित हो फ्रांस में कान फिल्म समारोह हुआ। इसके बाद यह सिलसिला चल पड़ा। आज लंदन,  न्‍यूयॉर्क, सैन फ्रांसिस्को, टोरंटो, टोकियो, मास्को, मेलबोर्न, हांगकांग, कैरो में होनेवाले अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह का नाम है। भारत में पहली बार सन् 1952 में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह आयोजित हुआ।

राजेंद्र पांडे द्वारा लिखित लेख (एक्सप्रेस स्क्रीन 10 नवम्बर 1995 को प्रकाशित) 

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