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Friday, December 11, 2015

राजेंद्र पांडे द्वारा लिखित लेख - हिंदी सिनेमा के ये भूले-बिसरे प्रवर्तक

हिंदी सिनेमा के ये भूले-बिसरे प्रवर्तक
               
                अगर हर प्रकार का इतिहास विवादास्पद होता है, तो सिनेमा का इतिहास भी इस सच्चाई से जुदा नहीं हो सकता। एक बात और, इतिहास में कई प्रवर्तक होते हैं, लेकिन सभी का नाम उनके सही रूप में इतिहास दर्ज नहीं कर पाता। तीसरी बात यह है कि दो स्थितियों, दो तत्वों, दो व्यक्तियों में कई बार इतना कम या सूक्ष्म अंतर होता है कि इनमें से किसी के सिर सेहरा मढ़ दिया जाता है, तो दूसरा हाथ मलता रह जाता है।
                भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहब फालके माने गए ! लेकिन उन्हीं के समांतर या उन्हीं के आगे-पीछे दो और फिल्मकार प्रवर्तनकारी कोशिशों में लगे हुए थे। इन तीनों के कार्यस्वरूप में एक सूक्ष्म अंतर था। यह सूक्ष्म अंतर ही दादासाहल फालके को खास श्रेय दे गया, जबकि शेष दो फिल्मकार सिनेमा इतिहास में इक्का-दुक्का उल्लेख के अलावा भुला दिए गए। ये दो फिल्मकार हैं रामचंद्र गोपाल उर्फ दादासाहब तोरने तथा श्रीनाथ पाटणकर। यहां हम इन्हीं के प्रवर्तनकारी योगदान का जिक्र करेंगे।
                दादासाहब तोरने वह फिल्मकार हैं, जिन्होंने पुंडलिकनामक फीचर फिल्म बनाई। इसे भारत की पहली फीचर फिल्म माना जाए या नहीं, यह विवाद का विषय है। यह विवाद कई कारणों से है, लेकिन सच्चाई यह है कि पुंडलिकदादासाहब फालके की फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्रसे एक साल पहले ही प्रदर्शित हो चुकी थी। पुंडलिक’ 18 मई 1912 को प्रदर्शित हुई थी, जबकि राजा हरिश्चंद्र’ 3 मई 1913 को प्रदर्शित हुई थी।
                ’पुंडलिकऔर दादासाहब तोरने की कहानी इस प्रकार है - दादासाहब ग्रीव्ह्ज कॉटन इलेक्ट्रिकल कंपनी ने बतौर लिपिक काम करते थे। लेकिन अपनी कलात्मक रुचियों के कारण वे फिल्मकार बने। तोरने के एक मित्र थे नाटककार रामराव बालकृष्ण कीर्तिकर। इन्हीं का लिखा हुआ लोकप्रिय नाटक था पुंडलिक। जब तोरने ने पुंडलिकनाटक देखा तो उनके मन में इसी नाटक को फिल्म में रूपांतरित करने की इच्छा कौंधी। तोरने ने अपना यह आइडिया अपने मित्रों को कह सुनाया। लेकिन नानाभाई गोविंद चित्रे जो कि एडवोकेट ऑफ इंडियानामक सांध्य दैनिक से जुड़े थे तथा पुरुषोत्तम राजाराम टिपणीस जो कि थिएटर के मैनेजर थे, को ही केवल यह आइडिया जंचा। बहरहाल इनके पास जो कमी थी वह पैसों की तथा सिनेमा माध्यम की तकनीक की जानकारियों की।
                इन्हें पता चला कि बोर्न एंड शेफर्ड कंपनी के बंबई स्थित दफ्तर में एक फिल्म कैमरा यूं ही पड़ा हुआ है। कई पत्र व्यवहार और बैठकों के उपरांत यह विलियमसन कैमरा एक हजार रुपये में तोरने गु्रप ने खरीदा। साथ ही चार सौ फुट लंबाई का फिल्म रोल भी हासिल किया। लेकिन तोरने तथा उनके मित्रों में से किसी को कैमरा चलाना नहीं आता था। बहरहाल उस कंपनी के एक कर्मचारी श्री jonsonजॉनसन ने उन्हें अपनी सेवाएं प्रदान करने का प्रस्ताव रखा।
                तोरने और उनके साथियों ने पुंडलिकनाटक के शौकिया कलाकारों को ही अपनी फिल्म पुंडलिकमें भूमिकाएं दीं। नाटककार कीर्तिकर ने अपने मित्र नाडकर्णी की मदद से नाटक पुंडलिकको संक्षिप्त किया। तोरने ने इसके निर्देशन की बागडोर संभाली।
अधिकतर शूटिंग बंबई के लैमिंगटन रोड पर स्थित एक मैदान में की गई। कुछ शूटिंग त्रिभुवन दास रोड  तथा विट्ठलभाई पटेल रोड पर भी की गई। फिल्म को तकनीकी प्रक्रियाओं से गुजरने हेतु विदेश भेजा गया। अंततः पुंडलिकबंबई के गिरगांव स्थित कोरोनेशन सिनेमागृह में 18 मई 1912 को प्रदर्शित हुई।
                तोरने भारत की पहली बोलती फिल्म आलमआराके लिए भी किस तरह प्रेरणा साबित हुआ इसकी भी रोचक कहानी है। आलमआराको पहली बोलती फिल्म के तौर पर श्रेय पाना महज एक संयोग है। उस समय के प्रभावशाली तथा स्रोतों से परिपूर्ण फिल्मकार मदान भारत की पहली बोलती फिल्म बनाने की कोशिश में थे, लेकिन आर्देशिर ईरानी की आलमआराबनाने की पहल को देखते हुए मदान ठंडे पड़ गए। ईरानी में भी आलमआराबनाने की कोई विशेष चाह नहीं थी, लेकिन उन्हें उनकी कंपनी के जनरल मैनेजर यानी दादासाहब तोरने ने पहली बोलती फिल्म बनाने का जोखिम उठाने हेतु उकसाया। हुआ यह कि तोरने ने कुछ समय पहले ऑडियो कैमेक्स रिकॉर्डिंग मशीनके विपणन की एजंसी ले रखी थी। ईरानी ने तोरने की सलाह मानी और आलमआराबनाने में जुट गए।
                इस घटना के छह महीने बाद प्रभात फिल्म कंपनी ने फिर तोरने और उनकी ऑडियो कैमेक्स रिकॉर्डिंग मशीनरी की सहायता चाही। इस समय मामला पहली बोलती मराठी फिल्म बनाने का था। हालांकि खुद तोरने श्याम सुंदरनाम पहली मराठी फिल्म बनाने के इरादे पक्के कर चुके थे। भालजी पेंढारकर को इस फिल्म का निर्देशन करना था। तोरने ने कुछ और कंपनियों को भी उनकी अपनी पहली बोलती फिल्म बनाने में मदद की। इन कंपनियों में प्रभात के अलावा रंजीत फिल्म कंपनी भी थी। इस तरह हम कह सकते हैं कि बोलती फिल्मों के निर्माण में तोरने की सहायता का अपना महत्व है। बोलती फिल्मों के युग में खुद तोरने ने भी कई रुचिकर, मनोरंजक फिल्में बनाईं। कई बार तो खुद के स्वार्थों की कीमत चुका तोरने ने दीगर फिल्मकारों को स्थापित किया।
                एक और भुला दिए गए फीचर फिल्म प्रवर्तक थे, जिन्होंने दादासाहब फालके से पहली भारतीय फीचर फिल्म बनाने की कोशिश की। यह थे श्रीनाथ पाटणकर। इनके साथ दो प्रकार की बदकिस्मती अपना असर छोड़ गई। पहली तो यह कि दादासाहब तोरने को तो फिर भी कुछ शोहरत प्राप्त हुई, पाटणकर इससे भी वंचित रहे। दूसरी बदकिस्मती पाटणकर के फिल्म निर्माण से ही जुड़ी है। श्रीनाथ पाटणकर के दो और साथी थे अनंतराम परशुराम करंदीकर तथा वी.पी.दिवेकर, भारत के प्रथम (लघु) फिल्मकार सावे दादा ने 1907 में जब अपना ल्युमिए कैमरा मिट्टी मोल यानी केवल सात सौ रुपये में बेचा तो उसे पाटणकर तिकड़ी ने खरीदा। सावे दादा ने अपना यह कैमरा मिट्टी के भाव इसलिए बेचा, क्योंकि अपने छोटे भाई रामकृष्ण की मौत से आहत होने के कारण वे फिल्म निर्माण से मुख मोड़ चुके थे।
                श्रीनाथ पाटणकर गिरगांव के कोरोनेशन सिनेमागृह के प्रबंधक थे, जबकि करंदीकर तथा दिवेकर पर नई फिल्मों के प्रदर्शन के समय उसी सिनेमागृह को सुसज्जित करने की जिम्मेदारी होती थी। इसी कारण ये तिकड़ी देशी-विदेशी फिल्मों के अधिक करीब पहुंच पाई। देशी फिल्मों में सावे दादा, हीरालाल सेन की फिल्मों का भी समावेश था। कैमरा हासिल करने के बाद पहले तो इस तिकड़ी ने छोटी-छोटी फिल्में बनाईं। इन फिल्मों में 1911 में बनाई इंपेरियल दरबारफिल्म भी शामिल है।
                जब इस तिकड़ी ने सिनेमा क्षेत्र में अपने पांच साल के अनुभव के कारण आत्मविश्वास पा लिया, तो वे अपने मूल उद्देश्य यानी फीचर फिल्म बनाने की ओर बढ़े। वास्तव में उनका मूल इरादा फीचर फिल्म बनाने का ही था, न कि लघु फिल्में बनाने का। बहरहाल तिकड़ी ने दो और वित्तीय भागीदारों को अपने बीच शामिल कर लिया। रानडे और भातखंडे इन भागीदारों के नाम थे। नतीजतन पाटणकर यूनियन का गठन हुआ।
                पहली फीचर फिल्म के लिए हिंदू पौराणिक कथा सावित्री को चुना। सावित्री की भूमिका के लिए अहमदाबाद की नर्मदा मांडे नामक लड़की तय की गई। खुद दिवेकर वैश्य ऋषि की भूमिका अदा करनेवाले थे, तो जयमुनि की भूमिका लोकप्रिय रंगमंच कलाकार के.जी.गोखले को करनी थी।
                मई 1912 में कोई एक हजार फुट लंबाई की फिल्म शूट की गई। फिल्म निर्माण के समय ही श्रीनाथ पाटणकर जो कि इस फिल्म के निर्देशक थे, को आशंका होने लगी थी कि फिल्म में कुछ तकनीकी दोष रह गए हैं। बाद में फिल्म के तकनीकी प्रक्रियाओं से गुजरने पर भी कुछ समस्याएं उभरीं। नतीजा यह निकला कि पूरी फिल्म कोरी की कोरी रह गई। उस पर का फिल्मीकरण नदारद था। यही पाटणकर के साथ दूसरी बदकिस्मती घटित हुई।
                दादासाहब तोरने की तरह पाटणकर भी प्रथम भारतीय फीचर फिल्म के प्रवर्तक के रूप में नाकामयाब रहे। यहां यह बता दें कि उनकी शुरुआत से एक हफ्ते पहले ही दादासाहब तोरने की फिल्म पुंडलिकप्रदर्शित हो चुकी थी। लेकिन कम से कम यह तो होता कि दादासाहब फालके से पहले पाटणकर का नाम लिया जाता। संभवतया वे ही प्रथम भारतीय फीचर फिल्म के निर्देशक के रूप में उभरते। इस घटना से एक और हानि हुई। नर्मदा मांडे भारतीय फिल्मों की प्रथम महिला कलाकार का खिताब पाने का अपना अवसर भी खो बैठीं। पाटणकर शायद जान चुके थे कि दो दादासाहब उन्हें मात कर चुके हैं, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने कई ऐतिहासिक-पौराणिक फिल्में बनाईं। लेखक, निर्माता, निर्देशक, कैमरामैन तथा अभिनेता पाटणकर ने कुछ और मौलिक काम किए। उन्होंने पहली भारतीय ऐतिहासिक फिल्म बनाई। हालांकि यह दौर पौराणिक फिल्मों का था। पौराणिक विषय फिल्मकारों के लिए शाश्वती दे जाते, लेकिन पाटणकर ने नया विषय क्षेत्र चुना - इतिहास का। इसलिए भी कि दादासाहब फालके पौराणिक विषय अपना चुके थे। पाटणकर ने ऐतिहासिक विषय क्षेत्र चुना। पाटणकर ने जैमिनी या पॅशन वर्सस लर्निंग 1915 बनाई।
                पाटणकर ने अपनी ऐतिहासिक फीचर फिल्म के लिए मराठा इतिहास से विषय चुना। विषय था नारायणराव पेशवा की हत्या। लेकिन फिल्म का नाम रखा गया नारायणराव पेशवा की मौत’, जो पूना के आर्य सिनेमागृह में 1915 में प्रदर्शित हुई। यह फिल्म लोकेशन पर ही फिल्माई गई। लेकिन प्रकाश रिफ्लेक्टरों का इस्तेमाल न करने के कारण फिल्म कुछ धुंधली रह गई। पाटणकर को पहली भारतीय धारावाहिक फिल्म बनाने का भी श्रेय है। फिल्म का विषय था भगवान राम का वनवास। कोई छह घंटे चलनेवाली 20,000 फुट लंबाई की, चार हस्सों में बनी फिल्म राम वनवासएक महीने से अधिक समय तक प्रदर्शित की गई। देखने हेतु चार टिकटोंवाला एक कूपन दिया जाता था।
                पाटणकर के सिर एक और सेहरा बंध सकता है। हालांकि यह विवादास्पद बात है। उन्हें पहली भारतीय सामाजिक पृष्ठभूमि वाली फिल्म बनाने का श्रेय भी दिया जा सकता है। लेकिन इस मामले में दावेदार धीरेन गांगुली भी हैं। पाटणकर ने 1920 में दी एनचॅन्टेड पिल्सफिल्म बनाई, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह सामाजिक  पृष्ठभूमि वाली फिल्म थी। अगर इन दावों को मान लिया जाए तो यह स्वीकार करना पडे़गा कि उक्त फिल्म सामाजिक पृष्ठभूमिवाली पहली भारतीय फिल्म होगी। इस स्थिति में धीरेन गांगुली का दावा खारिज हो सकता है कि 1921 में बनी उनकी फिल्म बिलत फेरतसामाजिक पृष्ठभूमिवाली पहली भारतीय फिल्म थी।
                बहरहाल प्रतिभाशाली पाटणकर को एक जगह और मात खानी पड़ी। वह था उनके वित्तीय पोषकों का उनका साथ छोड़ जाना। इसीलिए उपजाऊ क्षमता के पाटणकर को बतौर फिल्मकार अपना कैरिअर 1926 में ही खत्म कर देना पड़ा। इसके बाद वे बोलती फिल्मों के शुरुआती दौर में वे इंपीरियल फिल्म के साथ जुड़े, फिर मोहन भवनानी के अजंता सिनेटोन में अभिनय पढ़ाते रहे। बहुत बाद में वे कला निर्देशक भी बने, लेकिन बहुत जल्दी ही गुमनामी के शिकार भी हो गए।


राजेंद्र पांडे द्वारा लिखित लेख (एक्सप्रेस स्क्रीन 17.11.95 में प्रकाशित)

राजेंद्र पांडे द्वारा लिखित लेख - विश्व सिनेमा का शुरुआती दौर - सफर ऐसा रहा

विश्व सिनेमा का शुरुआती दौर
सफर ऐसा रहा

                सिनेमा का आविष्कार जैसे ही हुआ मानव जाति को मनोरंजन का एक नया साधन उपलब्ध हो गया। पूरी दुनिया में लोग इस नए क्षेत्र में प्रयोग करने के लिए उतावले होने लगे। यह उतावलापन आज तक जारी है। फर्क इतना ही है कि शुरुआती दौर का मानवीय उतावलेपन जिज्ञासा से प्रेरित था, आज के उतावलेपन ने पूरी दुनिया में एक हवस का रूप ले लिया है।
                फ्रांस के ल्युमिए बंधुओं ने ही सिनेमा माध्यम का आविष्कार किया, लेकिन फ्रेंच सिनेमा की नींव जॉर्ज मिली ने डाली। मिली ल्युमिए बंधुओं के साथ जुड़ कर सिनेमा माध्यम में कुछ करना चाहता था। लेकिन ल्युमिए बंधुओं के नकार देने पर मिली ने लंदन से पैरिस सिनेमा के जरूरी उपकरण ला मोंत्री सूसबॉई में स्टुडियो खड़ा किया। यूरोप का यह पहला स्टुडियो था। इस तरह फ्रेंच सिनेमा का जन्म हुआ।
                ल्युमिए बंधुओं के प्रशिक्षित आदमी भारत आए। उन्होंने सर्वप्रथम 7 जुलाई 1896 को बंबई में अपनी फिल्मों का प्रदर्शन किया। उसके बाद कलकत्ता में। वहां रोचक बात यह हुई कि एक व्यवसायी ने इन प्रशिक्षित तकनीशियनों का अपहरण किया और उन्हें ऑस्‍ट्रेलिया ले गया। वहां उनसे जबरन फिल्म प्रदर्शन करवाए। इस तरह दिसम्बर 1896 में ऑस्‍ट्रेलिया में सिनेमा का जन्म हुआ।
                विश्वस्तर पर जब प्रयोगात्मक फिल्मों का प्रदर्शन होता तो समस्या यह होती कि इनका प्रदर्शन कहां किया जाए, हमारे यहां, यानी बंबई में, तो प्रथम प्रदर्शन होटल के एक कमरे में हुआ। प्रदर्शन के लिए कहीं टेंट खड़े किए गए, कहीं नाट्यगृहों को उपयोग किया गया। बाद में फिल्म थिएटर बनाए गए, जो लोग फिल्म व्यवसायों में आना चाहते थे उन्होंने फिल्म कंपनियां स्थापित कीं। उन्होंने ही फिल्म स्टुडियो खड़े किए।
                आज हम खबरों का चित्ररूप (चित्रीकरण) देखते हैं। लेकिन इसकी शुरुआत सिनेमा के शुरुआती दौर में ही हो गई। सिनेमा का आविष्कार लोगों के लिए एक वैज्ञानिक अजूबा रहा। धीरे-धीरे इस अजूबे से लोगों का दिल भरने लगा। उन पर पकड़ बनाए रखने के लिए इर्दगिर्द की घटनाओं, समाचारों की लंबाई एक या दो रील हुआ करती थी। आगे चलकर इसी ने वृत्तचित्र का रूप लिया। एक बात और इस प्रकार की शूट घटनाओं से लोगों का ज्ञान भी बढ़ा।
                वर्तमान में दुनिया में फिल्में सेंसर होती हैं लेकिन फिल्मों पर कानूनी प्रतिबंध लगाने की पहल अमेरिका में 1907 में ही हो चुकी थी। शिकागो में एक अध्यादेश जारी किया गया, जिसके तहत फिल्मों को लाइसेंस प्राप्त करना जरूरी था। इस प्रकार का सिलसिला अमेरिका के दीगर शहरों में भी शुरू हुआ। अतंतः सारे अमेरिका में फिल्मों के विक्रय प्रथा प्रदर्शन पर नए कानून लागू हुए। अमेरिका की तर्ज पर इंग्लैंड में भी जनवरी 1910 में सिनेमाटोग्राफ अधिनियम जारी किया। इससे कुछ माह पहले फ्रांस सरकार ने भी ऐसा अधिनियम जारी किया ताकि फिल्म प्रदर्शनों का निरीक्षण किया जा सके। भारत में इस प्रकार का कानून बनने में और आठ साल लग गए। 1918 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सिनेमाटोग्राफ अधिनियम पास किया। हालांकि भारत में इस प्रकार के अधिनियम को लागू करने की ब्रिटिश सरकार की मंशा अलग थी। इस अधिनियम के जरिए ब्रिटिश सरकार सिनेमा माध्यम की हलचल पर तथा लोगों की भावनाओं पर काबू रखना चाहती थी। बहरहाल दुनिया में सिनेमा सरकार का विषय भी बन गया।
                घटना दिखाने वाली एक दो रीलवाली फिल्मों के बाद कथा वर्णन करनेवाली फिल्में आईं। ये मूक फिल्में हुआ करती थीं। इनके साथ लिखित भाषा जुड़ी हुआ करती थीं। अधिकांश मामलों में अंग्रेजी। जब गैर भाषा बोलनेवाले देश में ये लघु फिल्में दिखाई जातीं तो इनके भाषाकार्डस्थानीय भाषा में बना दिए जाते। यह बात 1889 के आसपास की है। इसी समय अपनी मौलिकता के कारण विश्व सिनेमा में अमेरिकी सिनेमा प्रधानता प्राप्त करने लगा।
                पहली वर्णनात्मक फिल्म थीं अवर न्यू जनरल सर्वेंट। इसमें  चार दृश्य थे। पहली प्रचारात्मक फिल्म थी टियरिंग डाउन द स्पैनिश फ्लैग। इसे स्पैनिश अमेरिकी युद्ध के दौरान शूट किया गया था। ट्रिक फोटोग्राफी इस्तेमाल करने वाली पहली फिल्म थी मिली द्वारा बनाई गई छोटी फ्रेंच फिल्म विजीट सू मे टू मेन’ (विजीट ऑफ दी वारशिप मेन’)। मिली को विश्व की पहली साइंस फिक्शन फिल्म बनाने का श्रेय भी प्राप्त है। 1902 में बनी इस फिल्म का नाम था ली वोयेज दान ला मून’ (द जर्नी टू दी मून)। इस फिल्म से यह तथ्य स्थापित हुआ कि सिनेमा के जरिये सिर्फ सादगीपूर्ण तरीके से किसी कथा का वर्णन नहीं किया जा सकता बल्कि फिल्मकार सिनेमा में अपनी सूझबूझ और कल्पनाशक्ति को भी भुना सकता है।
                फिल्म संकलन यानी एडिटिंग कला की खोज इत्तेफाकन कैसी हुई उसकी कहानी इस प्रकार है - साहसी छायाचित्रकारी जैमस विलियमसन की 1901 में बनी फिल्म फायरप्रसिद्ध वैज्ञानिक एडीसन के सहायक एडविन पोर्टर ने देखी। फायरको आधार बनाकर पोर्टर ने अमेरिका में फायरका पुनर्निमाण कर द लाइफ ऑफ एन अमेरिकन फायरमैनबनाई। मूल फिल्म के साथ पोर्टर ने कुछ और दृश्य जोड़ दिए और अचानक फिल्म संकलन की कला खोज निकाली।
                पोर्टर ने एक और ब्रिटिश फिल्म ए डेयरिंग डे लाइट राॅबरीसे प्रेरणा पा 1903 में द ग्रेट टेªन राॅबरीबनाई। इस फिल्म ने विश्व सिनेमा इतिहास में अपना सिक्का जमाया। अमेरिका में इस फिल्म ने हंगामा मचाया। इस फिल्म में एक दृश्य है। एक शॉट में क्लोजअप में फिल्म का गैंगस्टार सीधे ऐसी गन चलाता है जिससे महसूस हो वह सीधे दर्शकों पर ही गन चला रहा हो। दर्शक भयभीत हो अपना सीना पेट छुपा लेते थे।
                अमेरिका तथा ब्रिटेन में द ग्रेट ट्रेन रॉबरीकी भारी सफलता ने एक और भला-बुरा काम किया। इसने सिनेमा जगत को एक नया विषय दिया - अपराध। इसके बाद दसियों फिल्में इसी तर्ज पर बनीं। यह तब तक होता रहा, जब 1906 में फ्रेंच फिल्म ला वी टू क्राइस्ट’ (दी लाइफ ऑफ क्राइस्ट) बनी। पाठकों को याद होगा, यही वह फिल्म है जिसे देखकर भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहेब फालके ने भारत में पौराणिक फिल्म बनाने की प्रेरणा ली।
                भारत की ही बात कही जाए तो यह कि मदन बंधुओं ने पूरे भारत में सिनेमागृह का जाल बिछा दिया था। वे अपना व्यवसाय श्रीलंका, म्यांमार तथा हांगकांग में भी फैला चुके थे। उनके द्वारा स्थापित मदन थिएटर्स लिमिटेड के जरिए फिल्मों का निर्माण, वितरण तथा प्रदर्शन होता रहा।
                विक्टर की फ्रेंच फिल्म द लाइफ ऑफ क्राइस्टदेखकर धुंडीराज गोविंद फालके उर्फ दादासाहेब फालके विचलित हुए। उन्होंने तत्काल एबीसी ऑफ सिनेमाटोग्राफीखरीदी। उसके बाद 1912 में इंग्लैंड से विलियमसन कैमरा तथा दीगर फिल्म उपकरण खरीदे। 1913 में उन्होंने राजा हरिश्चंद्रबनाई। इस तरह भारत में पहली कथा फिल्म बनी।
                जहां तक इटली के सिनेमाजगत का सवाल है उसकी शुरुआत 1909 में हुई। इटली की फिल्म ला कदूत दीत्रोईने पूरे यूरोप में डंका बजाकर इटालियन सिनेमा को पहचान दिलाई। 1910 के आसपास तक अपराध, रोमांस, साहस, इतिहास जैसे विषयों पर ही फिल्में बनती थीं, लेकिन डेनमार्क में सेक्स विषय का पदार्पण हो गया। पुरुष की कामवासना और वेश्या जैसे विषय पर डेनमार्क में फिल्में बनने लगी। स्वभावतः ऐसे फिल्मकारों ने पैसा बनाया। इस सेक्स लहर से उबरने के लिए अमेरिकी फिल्मकारों ने पहल की। 1913 में जॉर्ज लोन ने ट्रेफिक इन सोल्सबनाई। यह फिल्म हिट रही । इस फिल्म से प्राप्त लाभ से पूरे जगत में प्रसिद्ध यूनिवर्सल पिक्चर्स नामक स्टुडियो की नींव पड़ी।
                एक और जगप्रसिद्ध स्थान हॉलीवुड की नींव ऐसे ही पड़ी। वह भी जगप्रसिद्ध फिल्मकार, उस समय जवान सिसील द मिली द्वारा। सिसील ने अमेरिकी-मेक्सिको सीमा पर एक शेड खड़ा किया। इसी शेड में उसने अपनी पहली फिल्म स्‍कवॉ मैनबनाई। सिसील ने आजीवन वहीं रहने का इरादा भी बना लिया। यही इलाका बाद में हॉलीवुड कहलाया। सिसील के बाद थॉमस तथा डी.डब्ल्यू.ग्रिफीथ जैसे प्रमुख फिल्मकार भी वहीं आ गए।
                यह वही ग्रिफीथ हैं जिन्होंने सिनेमा में नई संस्कृति को जन्म दिया। मूलतः अभिनेता ग्रिफीथ की जानी मानी फिल्म है बर्थ ऑफ ए नेशन1915 में बनी यह फिल्म कोई तीन घंटे अवधि की थी। इसमें अमेरिका का इतिहास था। आधुनिक सिनेमा जगत मेलाड्रामा दिखाने के लिए बदनाम है लेकिन बर्थ ऑफ ए नेशनमें आधुनिक सिनेमा के सभी तत्व थे। मसलन रोमांस, खोना-पाना, दौड़ के दृश्य, देशभक्ति, प्रकृति के नजारे, अपराध, अपराधी तथा सत्पुरुष। सिनेमा माध्यम के जरिए दुनिया ने इससे पहले ऐसा कुछ नहीं देखा था। 1915 में ही ग्रिफीथ ने इनटॉलरेंसनामक फिल्म बनाई। सिविलाइजेशन इन यूरोपनाम से रिलीज हुई इस फिल्म ने बॉक्‍स ऑफिस पर इतिहास बनाया। ग्रिफीथ का नाम सर्वत्र लिया जाने लगा। यह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था। यूरोप के कई देश जिन पर राजघरानों का शासन था, धाराशाई हो गए। लगा जैसे फिल्म इनटॉलरेंसदर्शकों को प्रजातंत्र तथा न्यायवादिता अपनाने का संदेश दे रही है।
                1919 में रूस में जारशाही का पतन हो चुका था। लेनिन में किसी तरह इनटॉलरेंसके एकमात्र प्रिंट को प्राप्त करने में कामयाबी हासिल कर ली। एक थिएटर ऑपरेटर के जरिए यह प्रिंट चोरी-छुपे रूस में लाया गया था। फिल्म को देखकर लेनिन को सिनेमा माध्यम के महत्व का पता चला। उसने इनटॉलरेंसको मिसाल बना सोवियत फिल्म उद्योग की नींव रखी। आगे चलकर स्ट्राइकतथा दी बैटलशिप पॉटेमकिननामक रूसी फिल्मों ने विश्व के गंभीर फिल्मकारों को रूसी सिनेमा का लोहा मानने के लिए मजबूर किया। माना गया कि रूसी फिल्मकार सरजेई आयजनस्टीन ने एक नए सिनेमा की खोज की है।
                यहां भारत में 1920 में इनटॉलरेंसदिखाई गई। जिसने भारतीय समाज में हलचल पैदा कर दी। अंग्रेज सरकार कानून के अभाव में फिल्म पर पाबंदी नहीं लगा सकी। बहरहाल इसी समय प्रसिद्ध कॉमेडियन चार्ली चैपलिन का जादू चल रहा था। चार्ली चैपलिन का उदय 1916 में हुआ था। उसकी दो रील लंबाई की कॉमेडी सर्वत्र हंगामा मचा रही थी। उसी तरह भारत में महाराष्ट्र फिल्म कंपनी, कोहिनूर कंपनी, अरोड़ा फिल्म्स् अच्छा व्यवसाय कर रही थीं।
                विश्व सिनेमा में एक और परिवर्तन आना था, वह था फिल्मों में आवाज। सन् 1926 में सिनेमा में ध्वनि का पदार्पण हुआ। वार्नर बंधुओं ने पहली बार द जॉज सिंगरनामक संगीतप्रधान कृति का निर्माण किया। 1927 में यह अमेरिका में रिलीज हुई। पहली भारतीय बोलती फिल्म थी आलमआराजो सन् 1931 में बनी।
                फिल्मों में ध्वनि आने से जहां फिल्मकारों को संदेश देने के लिए एक और सूक्ष्म माध्यम मिला, वहीं फिल्में विश्व स्तर पर भाषा के स्तर पर बंट गईं। उन कलाकारों के भी बुरे दिन आए जिनकी आवाज साऊंडट्रैक के लिए योग्य साबित नहीं हुई। सिनेमा में ध्वनि के पदार्पण से एक और कल्पना का जन्म हुआ। यही कि सिनेमा जगत की अच्छी कृतियों को पुरस्कृत किया जाए। इस तरह ऑस्‍कर पुरस्कारों का जन्म हुआ।
                इसी समय सिनेमा तकनीक में एक और क्रांति हुई। 1927 में वॉल्‍ट डिस्ने ने यह तय किया कि वे मानव कलाकार के बजाए कार्टून का इस्तेमाल कर फिल्म बनाएंगे। 1928 में फिल्मों के बादशाह के रूप में मिकी माउस का जन्म हुआ। चित्रकथा (एनिमेशन) फिल्मों के जरिए वॉल्‍ट डिस्ने ने विश्व सिनेमा इतिहास में जो अपना स्थान बनाया वह अद्वितीय है। वॉल्‍ट डिस्ने की नकल करने की कईयों ने कोशिश की लेकिन नाकामयाब रहे। जहां तक अफ्रीका का सवाल है, इस महाद्वीप में मिस्र पहला देश बना जहां स्टुडियो स्थापित किया गया। अलेक्झांड्रिया में पहला स्टुडियो बना। दक्षिण अफ्रीका के केपटाऊन में भी एक छोटा फिल्मोद्योग अस्तित्व में आया। शेष अफ्रीका, इंग्लैंड तथा फ्रांस के स्टुडियो पर निर्भर रहे। पूर्व अफ्रीका में भारतीय फिल्मों ने जगह बनानी शुरू की।
                आज हम स्टार सिस्टम की बात करते हैं लेकिन इस सदी के पहले दशक में ही फ्रेंच सिनेमा ने स्टार प्रणाली को जन्म दिया। 1908 में बनी फ्रेंच फिल्म ला दाम ऑक्‍स कॅमेलियामें उस समय की प्रसिद्ध रंगमंच अभिनेत्री सराह बरहार्द ने भूमिका निभाई। दर्शकों की  भीड़ सराह को देखने बार बार उमड़ती थी। अतः फिल्म निर्माताओं में सराह को अपनी फिल्म में लेने की होड़ लग गई। सराह को प्रथम अंतर्राष्ट्रीय फिल्म अभिनेत्री बनने का भी सम्मान प्राप्त है। इसी सदी का तीसरा दशक सही माने में स्टारों का काल रहा; हालांकि ये स्टार इस समय भी बड़े-बड़े स्टुडियो की चाकरी में ही थे।
                यही समय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साहित्यिक कृतियों को सिनेमा माध्यम में ढालने का भी रहा। इसकी मिसाल हैं लॉस्‍ट  होराइजन’, ’द गुड अर्थ’, ’द प्रिजनर ऑफ जेंडा’, ’द प्रिंस एंड द पॉपर’, ’रोमियो एंड जुलिएट’, ’स्टेज कोच’, ’ऑल क्वाएट ऑन दी वेस्टर्न फ्रंट’, ’स्नो व्हाइट एंड दी सेवन ड्वार्फ्स’, ’द एंडवचर्स ऑफ टॉम सॉयर’, ’पिगमॅलियन’, ’द हाऊंड ऑफ द बास्करविल्स’, ’गॉन विथ द विंडवगैरह।
                इटली का तानाशाह मुसोलिनी किसी तरह अपनी इटली का नाम रोशन करना चाहता था। अतः मुसोलिनी ने दुनिया का सर्वप्रथम अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह अपने देश के वेनिस शहर में आयोजित किया। सन् 1937 में हुए इस फिल्म समारोह में भारतीय फिल्म संत तुकारामउन चार फिल्मों में से थी, जिन्हें सर्वोच्च पुरस्कार मिले। इस फिल्म समारोह से प्रेरित हो फ्रांस में कान फिल्म समारोह हुआ। इसके बाद यह सिलसिला चल पड़ा। आज लंदन,  न्‍यूयॉर्क, सैन फ्रांसिस्को, टोरंटो, टोकियो, मास्को, मेलबोर्न, हांगकांग, कैरो में होनेवाले अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह का नाम है। भारत में पहली बार सन् 1952 में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह आयोजित हुआ।

राजेंद्र पांडे द्वारा लिखित लेख (एक्सप्रेस स्क्रीन 10 नवम्बर 1995 को प्रकाशित) 

राजेंद्र पांडे द्वारा लिखित लेख - भारतीय सिनेमा के जनक फालके थे या तोरने या पाटणकर ?

भारतीय सिनेमा के जनक
फालके थे या तोरने या पाटणकर ?

                इतिहास वही, जो किंतु-परंतुओं से भरा पड़ा हो। ये सभी किंतु-परंतु न होते या अपनी जगह सही होते तो इतिहास के कमोबेश सभी अध्याय अलग सच्चाइयों के साथ लिखे जा चुके होते। भारतीय फिल्म का इतिहास भी अपवाद न होता। लेकिन (लिखा) इतिहास, इतिहास है। इसलिए उसे स्वीकार करना पड़ता है, लेकिन किंतु-परंतुओं के साथ।
                भारतीय फिल्मों के इतिहास में किंतु-परंतु यह है कि दादासाहब तोरने तथा पाटणकर विभिन्न कारणों या बदकिस्मती के शिकार न होते तो दादासाहब फालके की जगह वे (उन में से एक) भारतीय सिनेमा के जनक कहलाते। लेकिन इन दिनों की तुलना में काफी देर से आए फालके भारतीय सिनेमा के जनक कहलाए। किस्सा यों है -
                3 मई 1913 को फालके द्वारा पहली भारतीय फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्रका प्रदर्शन हुआ। लेकिन हरिश्चंद्र भाटवडेकर उर्फ सावे दादा ने नवंबर 1899 में ही अपनी दो लघु (फीचर नहीं) फिल्मों का प्रदर्शन किया। सावे दादा ने और भी फिल्में बनायीं। बाद में अपने भाई की मौत से दुखी हो अपना कैमरा बेच दिया। यह कैमरा अनंतराम करंदीकर, वी.पी.दिवेकर तथा श्रीनाथ पाटणकर की तिकड़ी ने खरीदा।
                1912 में इस तिकड़ी ने रानडे तथा भातखंडे नामक दो और वित्त सहायकों को अपने साथ ले पाटणकर यूनियनकी स्थापना की। हालांकि इससे पहले यानी कैमरा खरीदने के साल 1907 से अब तक तिकड़ी ने कुछ छोटी फिल्में बनायीं। फिल्म तकनीक का अध्ययन किया वगैरह वगैरह। फिर अपने मुख्य मकसद फीचर फिल्म बनाने की तरफ मुडे़।
                फीचर फिल्म हेतु उन्होंने पौराणिक विषय सावित्री की कथा चुनी। अहमदाबाद की युवा नर्मदा मांडे को सावित्री की भूमिका के लिए तय किया। व्यास मुनि की भूमिका खुद दिवेकर ने की। मशहूर रंगमंच कलाकार के.जी.गोखले जय मुनि बने। उक्त फिल्म जिसकी लंबाई कोई एक हजार फुट थी, मई 1912 में शूट की गई। फिल्म निर्माण के दौरान ही पाटणकर जो इस फिल्म के निर्देशक थे, को कुछ तकनीकी खामियों का अहसास होने लगा था। बहरहाल, निर्माण तकनीक प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद फिल्म जब हाथ आई तो पूरी तरह कोरी थी।
                मई 1913 में फालके की राजा हरिश्चंद्ररिलीज हुई। अगर पाटणकर के साथ यह हादसा न होता तो राजा हरिश्चंद्र के निर्माण से एक साल पहले ही वह भारतीय सिनेमा के जनक कहलाते। नर्मदा मांडे को भी पहली भारतीय हीरोइन स्त्री कलाकार होने का सम्मान मिलता। यह सम्मान कमलाबाई गोखले को दादासाहब फालके की दूसरी फिल्म मोहिनी भस्मासुर में भूमिका निभाने के कारण मिला। कमलाबाई गोखले आज के प्रसिद्ध रंगकर्मी तथा हिंदी मराठी फिल्मों के चरित्र अभिनेता विक्रम गोखले की दादी थीं।
                पाटणकर की बदकिस्मती फिर भी समझ में आती है, लेकिन रामचंद्र उर्फ दादासाहब तोरने को पहली भारतीय फीचर फिल्म बनाने का सम्मान क्यों नहीं मिला, यह सोचने लायक सवाल है। तोरने ने तो पाटणकर की कोशिशों से एक हफ्ते पहले ही अपनी मराठी फिल्म पुंडलिकको रिलीज कर दिया था। पुंडलिक वास्तव में रामराव कीर्तिकर द्वारा लिखित श्रीपाद संगीत मंडली के प्रसिद्ध नाटक पुंडलिक का फिल्म संस्करण था।
                तोरने के सामने भी शुरू में यह समस्या थी कि नाटक पर फिल्म बनाने हेतु पैसा तथा तकनीकी मदद कहां से लायें ! बहरहाल, दोनों समस्याएं हल हुईं। तोरने ने बोर्न एंड शेफर्ड कंपनी के बंबई कार्यालय से एक हजार रुपये में विलियमसन कैमरा तथा चार सौ फुट लंबाई की फिल्म खरीदी। हालांकि कैमरा चलाना तोरने ग्रुप के किसी भी व्यक्ति को नहीं आता था। अतः कंपनी के ही एक कर्मचारी श्री जाॅनसन ने अपनी सेवाएं देनी कबूल की।
                पुंडलिक नाटक में काम कर रहे शौकिया कलाकारों को ही पुंडलिक फिल्म में काम करने हेतु कहा गया। मनोरंजक बात यह है कि जिस डी.डी.दाबके को एक साल बाद फालके के राजा हरिश्चंद्र में मुख्य भूमिका मिलनी थी, उसी दाबके को पुंडलिक में छोटी-सी भूमिका दे दी गयी। नाडकर्णी की मदद से खुद नाटककार कीर्तिकर ने अपने नाटक पुंडलिक को फिल्माने हेतु छोटा किया। तोरने ने इस फिल्म का निर्देशन किया।
                आज बंबई के लैमिंगटन रोड पर जहां नाज, स्वस्तिक तथा इम्पीरियल सिनेमागृह हैं, वहां उस समय के खुले मैदान में फिल्मांकन ही शुरू हुआ। तैयार हुई फिल्म प्रक्रिया हेतु विदेश भेजी गयी। इस तरह 18 मई 1912 को यानी राजा हरिश्चंद्रके ठीक एक साल पहले, बंबई के गिरगांव स्थित कोरोनेशन सिनेमागृह में पुंडलिकरिलीज हुई। कोरोनेशन में ही राजा हरिश्चंद्ररिलीज हुई थी। इसी नामीगिरामी कोरोनेशन के मैनेजर श्रीनाथ पाटणकर ही थे।
                फिल्म लेखक-पत्रकार संजित नार्वेकर अपनी बहुचर्चित, बेहद उपयुक्त अंग्रेजी किताब मराठी सिनेमा का पुनरावलोकन में इस लेख में दिये इतिहास को रेखांकित करते हुए दो-तीन संभावित कारण गिनाये हैं, जिनके कारण तोरने पहली भारतीय फीचर फिल्म के जनक के रूप में स्थापित नहीं हो पाये। पहला कारण तो यह है कि पुंडलिक मौलिक पटकथा पर आधारित नहीं थी, बल्कि नाटक का फिल्म रूपांतरण था। चंूकि पुंडलिक का कैमरामैन एक विदेशी था, इसलिए यह माना गया है कि यह फिल्म पूरी तरह भारतीयों द्वारा बनायी गयी (पहली) फिल्म नहीं है। तीसरे दादासाहब तोरने की चुप्पी दादासाहब फालके को भारतीय सिनेमा (फीचर फिल्म) का जनक बना गयी।

राजेंद्र पांडे द्वारा लिखित लेख (नवभारत टाइम्स, 4.10.95 में प्रकाशित )


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